(EDITOR-IN-CHIEF, K.P SINGH) नोट बंदी के समय गुजरात में अज्ञात कुलशील के किसी महेश शाह के पास मिले कई सौ करोड़ रुपये का रहस्य दफन हो गया। अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी को रातों-रात हुए भारी भरकम मुनाफे की पहेली की चर्चा भी बिना संतोषजनक उत्तर के समाप्त हो गई। अमित शाह तिलस्मी व्यक्तित्व हैं। जस्टिस लोया की संदिग्ध मौत के मामले में वे एक बार फिर निशाने पर हैं। हरि अनंत हरि कथा अनंता से कम नही हैं अमित शाह। वरना वे यकायक भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में स्वीकार्य नही हो जाते। उनकी उनकी कोई स्वतंत्र पहचान नही थी। वे मोदी के खास आदमी के रूप में पहचाने जाते थे। इसके अलावा एक राष्ट्रीय और सामूहिक नेतृत्व वाली पार्टी में प्रधानमंत्री और अध्यक्ष दोनों बड़े पदों पर एक ही राज्य के आपस में चटटे-बटटे का आसीन होना सहज नही था। लेकिन सामूहिक नेतृत्व वाली पार्टी इस कदर केंद्रीयकृत हो गई कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके शक्तिवृत्त को पूर्ण करने के लिए अमित शाह को राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद सौंपना पार्टी की मजबूरी बन गई। जाहिर है कि इस नाते अमित शाह पर जो कलंक लगता है उसमें प्रधानमंत्री अपने आप निहित हो जाते हैं यह मानने में कोई दुविधा नही होनी चाहिए।
अमित शाह ही नही मुकेश अंबानी की उनके साथ अभिन्नता भी पूरी तरह स्थापित है। जिनका नाम कभी डीजल, पैट्रोल को जीएसटी के दायरे से अलग रखने की वजह से जुड़ जाता है तो राफेल विमानों के सौदे में गड़बड़ी की गूंज भी आखिर उन तक जाकर पहुंचती है। फिर भी नरेंद्र मोदी दावा कर सकते हैं कि वे बेदाग हैं उनके जमाने में बड़े-बड़े घोटाले नही हुए। गैस सब्सिडी के स्वेच्छिक त्याग से लेकर सरकारी योजनाओं से आधार को लिंक करने के फैसले तक वे हजारों करोड़ रुपये की बचत करना गिना रहे हैं। एक ओर उनके दावों से लगता है कि देश का खजाना इन उपलब्धियों की बदोलत लवालव हो जाना चाहिए। दूसरी ओर हर जरूरी सेवा को मंहगा करने की जरूरत उन्हें पड़ रही है। यह मंहगाई सेवाओं का स्तर सुधारने में प्रतिफलित हो तो भी गनीमत है लेकिन हालत यह है कि रेल का किराया जितना ज्यादा बढ़ता जा रहा है उतना ही उनका समय से चलना मुश्किल होने लगा है। मोदी राज में ट्रेनों के बिलंब से चलने का नया रिकार्ड कायम हुआ है। यह अकेले रेलवे की बात नही है कमोवेश यही हाल सभी सेवाओं का है।
आपके पास प्रचारतंत्र है तो आप कुछ भी अलाप सकते हैं। आप इतने महान है कि तक्षशिला को भारत में बता सकते हैं, भगत सिंह के काला पानी के जेल के दिनों की याद कर सकते हैं, अपनी पार्टी को देश के 6 सौ करोड़ लोगों से वोट मिलने का दावा कर सकते हैं और इंदिरा गांधी और बेनजीर भुटटो के बीच शिमला समझौता करा सकते हैं। लोग भले ही गफलत में पड़ जायें पर हकीकत तो जो है वही रहेगी। भ्रष्टाचार आपके राज में समाप्त हो गया या नही इसकी कसौटी यह है कि लोगों को रोजमर्रा के काम में पता चलना चाहिए कि सरकारी तंत्र में बिना पैसे दिये उनकी सनुी जा रही है या नही। कहा जाता है कि अगर मंत्रियों के स्तर पर घूसखोरी न हो तो अधिकारियों और कर्मचारियों की मजाल नही है कि लोगों को घूस के लिए परेशान कर सकें। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है। केंद्र सरकार के कार्यालय हों या राज्य के कितना भी जायज काम बिना पैसे दिए होना आज भी संभव नही है। बेरोजगारों और दिव्यागों तक के प्रमाण पत्र बिना घूस लिए जारी नही किये जाते। इस हद तक कफनखसोट है सरकारी तंत्र और इस स्थिति के बने रहते कोई गुड गवर्नेंस के नाम पर सीना ठोके तो उससे ज्यादा मक्कार कौन हो सकता है। यह मक्कारी कल भी थी और आज भी है तो क्या नही माना जाना चाहिए कि सरकार का भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था कायम करने का दावा एक प्रवंचना है। जनता को लूटने के लिए मंत्रियों से लेकर कर्मचारियों तक का नेक्सस काम करता है जो कल भी हो रहा था और आज भी हो रहा है। भले ही तौर-तरीकों और परिमाण में अंतर आ गया हो। हालांकि कुछ लोग तो दूसरी बात कहते हैं। उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में तो ईमानदारों के राज में घूसखोरी का रेट पहले से दुगना-तिगुना हो गया है। दूसरे क्या भाजपा के कई सांसद और विधायक तक यह कह रहे हैं। इसलिए बिल्कुल जाहिर है कि इसमें दो ही बातें हो सकती हैं या तो कोयले की दलाली में सभी हाथ काले कर रहे हैं या प्रशासन पर लगाम लगाने की बुनियादी योग्यता इस सरकार में नही है बहरहाल जो भी हो।
रोजगार के मामले में जब प्रधानमंत्री इस पर उतर आये हैं कि लोग पकोड़े तल रहे हैं यह भी एक रोजगार है तो यह अपने आप में स्वीकारोक्ति है कि नौजवानों को उनकी योग्यता और क्षमता के मुताबिक काम देने में सरकार हारी मान चुकी है। इसके बावजूद अगर जीडीपी बढ़ती दिखाई दे रही हैं तो कुछ न कुछ हेराफेरी है। देश की सारी दौलत चंद हाथों में सिमटने से अगर जीडीपी बढ़ती है तो ऐसी जीडीपी वृद्धि दर को धिक्कार है।
इस सरकार के आने के पहले निजी क्षेत्र में मिलने वाले मेहनातें में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद से सुधार लगातार हो रहा था यहां तक कि मनरेगा के लागू होने के बाद मजदूरी का रेट भी काफी हद तक ठीक-ठाक हो गया था। लेकिन अब हालत यह हो गई है। कि 2014 के पहले जितनी पगार मिल रही थी उससे भी कम में लोगों को काम करना पड़ रहा है बढ़ने की बात तो अलग रही। मजदूरी के रेट में भी कमी आई है। दूसरी ओर मंहगाई लगातार बढ़ाई जा रही है। आमदनी के बढ़ने के साथ मंहगाई बढ़ रही थी तो लोगों को खल नही रहा था। पर आमदनी घट रही है, मंहगाई बढ़ रही है जिंदगी दुस्वार कैसे न हो। उस पर भी पहले इतना रोजगार था कि पूरा घर काम में लग जाता था लेकिन अब एक आदमी को काम के लाले पड़े हैं।
सरकार को यह भी देखना होगा कि बहुसंख्यक आबादी प्राइवेट सैक्टर में काम करती है जिसे पर्याप्त मेहनातें की व्यवस्था हो सके। अन्यथा आज तो प्राइवेट सैक्टर में काम करने वाला न जी पा रहा है, न मर पा रहा है। सामंती दौर की बेगारी प्रथा से ज्यादा बुरी हालत उसके लिए है। न्यूनतम वेतन व्यवस्था को सरकार सुनिश्चित नही कर पा रही। अखबारों की ही मिसाल लें पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के मामले में मालिकान उच्चतम न्यायालय की भी बात नही मान रहे और इस धृष्टता के बावजूद वे सरकार के दुलारे बने हुए हैं। सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए कि चाहे निजी क्षेत्र में हो या सरकारी क्षेत्र में पर्याप्त नौकरियां सृजित हों और काम करने वाले को गरिमापूर्ण ढंग से जीने लायक वेतन मिले। इसके कारण धन्ना सेठ नाराज हो तो होते रहें, कर्मचारियों के वेतन की स्थितियों में सुधार के लिए बाध्य किये जाने से संस्थान और कारखाने बंद नही होगें। सरकार को सही अर्थों में लोकप्रिय बनना है तो उसे प्रभावशाली लोगों को अपने इकबाल का एहसास कराने की कमर कसनी होगी। इतिहास गवाह है कि हर सरकार ने जो लोकप्रिय हुई इस मंत्र का अनुपालन किया है। पर यह अनोखी सरकार है जो किसी प्रभावशाली तबके से बुराई मोल नही लेना चाहती। प्रचारतंत्र के जरिए उसे जो लोकप्रियता मिल रही है वह छदम है जिसे बहुत जल्दी टूट जाना है। सरकार को यह समझ में आयेगा या नही।
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